आपने देखा होगा कि अक्सर घरो, गलियों मे आने वाला हर फेरिया व्यापारी अपना कुछ न कुछ सामान, जोकि अमूमन एक ही तरह की वस्तु होती है, बेचने को लाता है, कही एक खास जगह से खरीद कर, जबकि कबाडी इसके ठीक विपरीत भिन्न-भिन्न जगहों, घरों, गलियों से भिन्न-भिन्न तरह का कूडा खरीद्कर व इक्कठ्ठा कर, एक जगह पर बेचने ले जाता है । साहित्य-जगत मे एक रचनाकार भी एक कबाडी की ही तरह होता है, उस कबाडी की तरह, जो घर-घर जाकर कूडा इकठ्ठा करता है। साहित्य-जगत से जुडा एक रचनाकार अथवा साहित्यकार भी भिन्न-भिन्न जगहो, मौसमो, वातावरण और परिस्थितियों से साहित्यिक और बौद्धिक कूडा-कच्ररा अपने दीमाग मे इक्कठाकर लाता है, और फिर एक जगह पर उसे संग्रहित कर देता है, या फिर बेच डालता है। सचमुच कितनी समानताये है न, एक रचनाकार और एक कबाडी मे ? हां, फर्क बस इतना है कि कबाडी का इक्कठा किया हुआ कूडा तो उसे कुछ न कुछ आर्थिक अर्जन देता ही है, मगर साहित्यकार का कूडा उसे मौद्रिक लाभ भी देगा, इसकी कोई गारन्टी नही होती।
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो,
साहित्य की गलियों के ।
वन और उपवन की
पौधे, फूल और कलियों के॥
कबाड खाने के ,
मंजे एक खिलाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
सर्दी, गर्मी और बरसात
सुबह, दिन, शाम,
शहर, गली, और धाम,
कुछ न कुछ,
बिनते ही रहते हो ।
हां, एक फर्क भी है,
कबाडी आवाज लगा कर,
कूडा खरीदता है,
मगर तुम चुपचाप,
कुछ भी तो नही कहते हो ॥
कहीं उस्ताद
तो कहीं अनाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
बस खामोश,
तत्परता से जुटे रहकर,
समेट लेते हो बौद्धिक कच्ररा,
दिमाग के गोदाम मे।
परख-परखकर,
जब ढेरों इक्कठ्ठा हो जाये
फिर लग पडते हो,
अपने असली काम मे ॥
सचमुच मे,
बडे ही जुगाडी हो ,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो,
साहित्य की गलियों के ।
वन और उपवन की
पौधे, फूल और कलियों के॥
कबाड खाने के ,
मंजे एक खिलाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
सर्दी, गर्मी और बरसात
सुबह, दिन, शाम,
शहर, गली, और धाम,
कुछ न कुछ,
बिनते ही रहते हो ।
हां, एक फर्क भी है,
कबाडी आवाज लगा कर,
कूडा खरीदता है,
मगर तुम चुपचाप,
कुछ भी तो नही कहते हो ॥
कहीं उस्ताद
तो कहीं अनाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
बस खामोश,
तत्परता से जुटे रहकर,
समेट लेते हो बौद्धिक कच्ररा,
दिमाग के गोदाम मे।
परख-परखकर,
जब ढेरों इक्कठ्ठा हो जाये
फिर लग पडते हो,
अपने असली काम मे ॥
सचमुच मे,
बडे ही जुगाडी हो ,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
15 comments:
साहित्य-जगत मे एक रचनाकार भी एक कबाडी की ही तरह होता है, उस कबाडी की तरह, जो घर-घर जाकर कूडा इकठ्ठा करता है।
yeh baat aapne bilkul sahi kahi....
kavita bahut achchi lagi.....
"मगर साहित्यकार का कूडा उसे मौद्रिक लाभ भी देगा, इसकी कोई गारन्टी नही होती।"
आशा रखें जी कि निकट भविष्य में ब्लोग कुछ तो कमाई होगी ही। :-)
मेरी तो यह बहुत पुरानी अवधारणा है कि साहित्यकार कबाडी और समीक्षक हलवाई होता है।
बात तो आपकी सोचने लायक है।
साहित्यकार और कबाड़ी में गहरा तारतम्य बैठाया है आपने ..... सच कहा है दोनो जुगाड़ करते हैं अपनी अपनी चीज़ों का .... अच्छा लिखा है ... ...
साहित्यकार और कबाड़ी दोनो के बीच आपका साम्यसंतुलन बेहतरीन बन पड़ा है, बधाई ।
साहित्यकार का कबाडा कर दिया :-)॥
गिरिराज प्रसाद की शायद एक कविता है " मैं गीत बेचता हूँ...." जो बहुत प्रसिद्द हुई थी...आप की रचना भी अद्भुत है...सोच के स्तर पर कमाल किया है आपने...भाव और भाषा दोनों मोहक हैं...वाह...आनंन्द ला दिया आपने...
नीरज
सचमुच मे,
बडे ही जुगाडी हो ,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।
वाह क्या सटीक अभिव्यक्ति है । बहुत अच्छा व्यंग है शुभकामनायें
साहित्यकार कबाड़ी नही होते।
जौहरी हौते हैं जी!
साहित्यकार, यही फर्क तो बताता है कि क्या कबाड़ा है और क्या संजोना है...!!!
शुक्र है! हम इस श्रेणी में नहीं आते :)
ye toh khoob hi rahi bhaiji...
anand aa gaya !
रोचक प्रस्तुति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
हम तो इस अपुराने सड़ी-गली व्यवस्था को बेचना चाहते है ..कोई कबाड़ी है क्या ?
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