Sunday, October 25, 2009
एक अफ़सोसमय गीत !
पाले रखी थी ख्वाईशे बहुत, कहने को कोई हमारा भी हो
किसी के हम भी बने,कोई तन्हाई का सहारा भी हो,
अफ़सोस है मगर, कि मै किसी का भी ना बना !
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
वक्त-ए-हालात युं ही मेरा सदा, यहां जाता है गुजर
कहीं आशा की किरण अबतक, आई न हमको नजर,
उम्मीद की राह मे हर तरफ़ छाया है कुहरा घना !
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
हम तो सदा से बस इक, खुश-फहमी मे ही जीते रहे
कोई होगा संग दिल सनम, जामे-तन्हाई पीते रहे,
थक गये आखिर इस बेकरार दिल को मना-मना !
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
गमो ने चौ-तरफ़ा आकर, इस तरह से हमको घेरा है
नाउम्मीदी ही नाउम्मीदी का छा गया अन्धेरा है,
जहरीला अवसाद का खंजर जाने क्यो मुझपे तना !
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
जो थे भी कुछ रिश्ते उनकी बुनियादे, जाने कब रिस गई
बेकरार आखें तो बस इन्तजार, करते-करते ही घिस गई,
दिल मे इक सूनेपन का यह कैसा द्वन्द है ठना !
कितनी मन्हूस सी रही होगी वह घडी ,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
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13 comments:
जीवन में इतनी निराशा भी ठीक नहीं। किसी भी मनुष्य का जन्म कुछ कर गुजरने के लिए होता है। कोई अपना बने न बने इससे कर्म नहीं रुकते।
घनघोर निराशा छाई
आशा नजर ना आई
बीते लम्हे युँ सजाए
आनंद बरसेगा भाई
जो थे भी कुछ रिश्ते उनकी बुनियादे, जाने कब रिस गई
बेकरार आखें तो बस इन्तजार, करते-करते ही घिस गई,
दिल मे इक सूनेपन का यह कैसा द्वन्द है ठना !
कितनी मन्हूस सी रही होगी वह घडी ,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
hmm waqayi kayi baar zindgi bekaar worthless lagti hai
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
mat rakho ummeeed itni,
is zindgi se,jinke bina
ye zindgi hi bekaar lage...
पाले रखी थी ख्वाईशे बहुत, कहने को कोई हमारा भी हो
किसी के हम भी बने,कोई तन्हाई का सहारा भी हो,
अफ़सोस है मगर, कि मै किसी का भी ना बना !
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
सुन्दर कविता
इतनी निराशा कि अपने जन्म तक को कोसना पड़ जाए , प्यार देने से हमेशा भरे रहने का अहसास होता है , हमारी सलाह है कि आप नकारात्मक को न उठाएं और हर परिस्थिति से कुछ कलात्मक सृजन करने की कोशिश करें |
अब कोसता फिरता हू मन्हूस उस घडी को,
जिस घडी मे मेरी मां ने, मुझे था जना !!
पी.सी. गोदियाल साहब अजी आप जेसे शेर दिल आदमी इतनी निराशजनक कविता भी केसे लिख सकता है...कुछ समझ मै नही आया
धन्यवाद
यह गीत वाकई में अफ़सोसमय है ।
लेकिन यह मानकर कि जीवन हमारे सोचने के अनुसार नहीं चलता , जो उपलब्ध है उसका आनंद लेना चाहिए ।
"मैने तब तक अपने पास जूते न होने कि शिकायत की , जब तक मैने ऐसे आदमी को नहीं देख लिया जिसके पास पैर ही नहीं थे "
रचना सुन्दर है गोदियाल जी! पर जीवन में इतनी निराशा भी ठीक नहीं है। किसी घड़ी को कोसने से अच्छा है कि कोई ऐसी घड़ी लाने का प्रयास करें जो सारी निराशाओं को खत्म कर दे। वैसे कभी हमने भी लिखा थाः
आकांक्षा का दुर्ग ढह गया भग्नावशेष ही शेष रह गया।
आशा का आकाश गिर गया, जीवन में बस क्लेश रह गया॥
पर लिख कर भूल गए थे, आज आपने याद दिला दिया।
जो थे भी कुछ रिश्ते उनकी बुनियादे, जाने कब रिस गई
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने, पर निराशा को दूर भगाना ही होगा, अगली रचना में बधाई ।
ek hatash ,nirash ,vyakti ki bhawna ko sahi shabd diya aapne
बिलकुल नहीं जी माँ कभी अपने सृजन को नहीं कोसती। ये आपके मन की निराशा की अभिव्यक्ति है। बहुत अच्छी रचना है जो एक आदमी की आज के सच पर बेबसी कह रही है शुभकामनायें
बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! मेरे इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
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