गिरह बांधी है मिसरे की, मतले से मक्ते तक दर्द ने,
तुम कहो, न कहो, मगर बात कह दी चेहरे की जर्द ने !
पतझड़ में इस कदर पत्ता-पत्ता, डाली से खफा क्यों है,
नाते नए पैदा कर दिए क्यों, रिश्तों पर जमी गर्द ने !!
बुलंदियां पाने की चाह में, तहजीब त्यागी क्यों हमने,
गिरा दिया कहाँ तक हमें, हसरत-ए-दीदार की नबर्द ने !
हासिल होगा क्या तेरे, सरे-जिस्म पर से पर्दा हटाने से,
माल की गुणवत्ता तो बता दी, प्रतिरूप नग्न-ए-अर्द्ध ने !!
हमें तो हरेक दिन तबसे'फूल'ही नजर आता है'परचेत',
पर्दा करना व बुर्का पहनना, शुरू कर दिया जबसे मर्द ने !!
Friday, April 1, 2011
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