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Wednesday, March 10, 2010

एक सडक जो कुछ अलग सा कहती है !

कुम्भ मेला भी अपनी समाप्ति की और अग्रसर है, अपने निजी काम से फिर एक बार उस सड़क को नापा, जो दिल्ली से हरिद्वार जाती है ! पिछली यात्रा के बाद इस बार भी कुछ भी नया नहीं था ! वही अस्तव्यस्त पडी सड़क , जिस पर कभी एक कुशल ड्राइवर ४ घंटे में दिल्ली से हरिद्वार पहुचाने की गारंटी देता था , वह भी आज छः साढ़े छः में पहुँचाने के लिए कहता है कि बाबूजी, कोशिश करूंगा, वादा नहीं ! एन डी ए के शासन काल में मंजूर हुआ सड़क चौडीकरण का काम आज भी ज्यों का त्यों पडा है, कहीं चल भी रहा है तो कछुवे की चाल, शायद इस सड़क को तीब्र गति से बनाने के लिए सरकार के पास धन की कमी आड़े आ रही है ! बस सड़क पर गुजरते वक्त यही उम्मीद बंधती है कि बारह साल बाद आने वाले अगले महा-कुम्भ तक शायद कुछ सुधार हो जाए !



कुछ अलग सा कहती है

एक सडक वो,

गन्तव्य की ओर बढते हुए,

मैने देखा था

जिस सडक को,

अपने में

अनेकों भिन्नता लिए,

उदास सी,

अधेड चेहरे पर

कुछ खिन्नता लिए,

मैं एक टक, बस एक टक,

उसे ही देखे जा रहा था ।



किस तरह वह,

समेटने की कोशिश मे लगी थी

अपने फटे सीमित आंचल मे,

हर उस पैदल, साइकिल,

दुपहिया, तिपहिया,कार,

बस और ट्रक सवार को,

और तो और,

ट्रैक्टर,गन्ने से लदी बग्गीय़ों

एवं जुगाड को,

एक सचेत भारतीय मां की तरह

बस,

डूबी इसी फिक्र मे,

कि कही उसके कुनवे का

कोई लाड्ला फिसल न जाये,

गिर न जाये,

किसी गड्डे इत्यादि मे,

उसकी बेवसी,

उसके आंचल की दुर्दशा देख,

मैं मंद-मंद मुस्कुरा रहा था ॥





दिन रात लग्न से,

ढोये जाती थी उन मुसाफ़िरों को,

जो अधिकांशत:

अपने-अपने

पाप धोने जा रहे थे।

या फिर लौटते मे,

पुण्य कमाने का अह्सास लिए,

खुशी-खुशी

घर वापस आ रहे थे॥




उसकी इस बेवशी पर,

मुझे मुस्कुराता देख,

वह कुछ

तिलमिला सी गई,

और मुझसे कहने लगी,

कि हंस ले बेटा तू भी,

सुन, आज मैं तुझे बताती हूं ।

वे लोग जो

भगवान् का

नाम नहीं भजते है,

जिन पर,

मुझे सवारने की

जिम्मेदारी है,

वे कुछ धर्मनिरपेक्ष,

शायद मुझे भी

साम्प्रदायिक समझते है,

क्योंकि मेरा दुर्भाग्य

कि मै,

दिल्ली से हरिद्वार जाती हूं ॥



ऐ काश, कि मैं
भी

दिल्ली से मक्का

या फिर रोम जाती।

सुन्दर,

चौडी और सपाट

सडक क्या होती है,

फिर मैं तुम्हें बताती॥

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